सोमवार, 15 अक्तूबर 2012














ये सोचकर रूह काप जाती हैं
जब पापा से बिछरने की बात आती हैं.....................

जिसने दिया था इतना लाड प्यार
एक दिन छोर जाउंगी उसी का साथ............................

जिसने बिठाया था कंधे पर खेल ही खेल में
आज विदा कर देंगे रिश्तो की रेल में....................

बचपन में चलना सिखाया था जिसने
रोती हुई गिडिया को हसाया था जिसने...............

छूता वो आंगन वो बचपन की घडिया
लौट कर न आयेंगी वो यादो की लडिया..........................

न सोचा था दूर जाउंगी कभी
मैं इतनी बड़ी हो जाउंगी कभि..................................

ज़िन्दगी के सफ़र में बढ़ जाउंगी मैं भी
उन्हें राहो  में तनहा छोर जाउंगी कभी.............................

शायद इसलिए वो यादे याद आती हैं
जब पापा से बिछरने की बात आती हैं

जब पापा से बिछरने की बात आती हैं ..............    











हमे लिखना न आता था,  उनकी यादो ने वो भी सिखा दिया
आँखों में नमी और हाथो में न आने का पैगाम थमा दिया

कहते हैं तुमने  कभी मोहब्बत नहीं किया हमसे
जाते जाते मुझे बेवफा का नाम करार दिया

यही सोचकर हम लिखते रहे वो आयेंगे
मेरी लिखावट को उन्होंने किसी और का नाम दिया

आये वो धूम धाम से दरवाजे पर बारात लेकर
और मुझे अपनी दुल्हन को सजाने का काम दिया
                                           
                           

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

!! माँ !!

!! मां !!

धूप  में एक ठंडी छाँव है माँ
समुद्र के गहरे तल में
सीप में छिपी मोती है माँ  .
मां प्यार की नगरी है /ममता की मूरत
स्नेह का आँचल है माँ  ...!

मां कोमलता का पर्याय है
मगर इरादों में-
चट्टानों सी मजबूत है माँ 
इसलिए कवच बनकर सुरक्षा देती है हमारी और-
करती है खतरों से आगाह
कभी दूर्गा  तो कभी
काली बनकर....!

फूलों से भी कोमल हो जाती है माँ 
उस वक़्त जब करती है बरसात स्नेह की
और पढ़ाती है ककहरा जीवन का ...
हर पल बसे होते हैं हम मां की साँसों में
और मां की सात्विकता बसी होती है हमारे आचरण में हर पल...!

मां श्रृष्टि की अनुपम रचना है
इसलिए तो पानी से भी ज्यादा शीतल है माँ
इतने गुण शायद भगवान में भी नहीं
इसलिए भगवान से भी बढाकर है माँ !

इतना कुछ होने के बावजूद -
हम क्यों नहीं समझ पाते माँ  की
ममता को /क्यों करते हैं उनका उपहास
क्यों नहीं करते उन सा स्नेह
क्यों छोड़ देते हैं हम उन्हें बीच मझधार में
जो करती है स्वार्थ रहित प्यार
जो स्वयं भूखो रहकर भरती  है हमारा पेट
और चोट खाकर खुद
मरहम लगाती है हमारे घावों को ....!

आज पूरी दुनिया के लिए-
एक सवाल है माँ !
पूछती हूँ मैं  आपसे कि क्या-
शर्मिन्दगी, लाचारी, बेवसी और नाममात्र  बनकर रह गयी है मां ?
() () ()

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

दूर करनी होगी अशिक्षा

भले ही भारत को विकाशशील देशों की जमात में एक प्रगतिशील देश होने का तमगा हाशिल हो लेकिन देश में शिक्षा की स्थिति अच्छी नहीं है .! बीते दिनों अखवारों में खबर आई कि आज आजादी के ६४ साल बाद भी ८१ लाख बच्छे ऐसे हैं जिन्होंने विद्यालय का मुंह तक नहीं देखा ! आंकड़े बताते हैं कि स्थिति दयनीय है फिर चाहे सरकारें कुछ भी कहे ! सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर करोड़ों रुपये फूंकने वाले दो राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश इस स्थिति के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है ! ऐसी स्थिति को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में हम विक्सित देश का सपना देखने वाले लोग कहीं विकाशशील बनाने के लायक भी न रह जाए . यह चिंतन का विषय है !